दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे |
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् || 20||
दातव्यम्-दान करना चाहिए इति इस प्रकार; यत्-जो; दानम्-दान; दीयते दिया जाता है; अनुपकारिणे-बिना प्रतिफल की इच्छा से दान करने वाला; देशे-उचित स्थान में; काले-उचित समय में; च-भी; पात्रे-पात्र व्यक्ति को; च-तथा; तत्-वह; दानम्-दान; सात्त्विकम् सत्त्वगुण; स्मृतम्-माना जाता है।
BG 17.20: जो दान बिना प्रतिफल की कामना से यथोचित समय और स्थान में किसी सुपात्र को दिया जाता है वह सात्त्विक दान माना जाता है।
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अब दान के तीन भेदों का वर्णन किया जा रहा है। सामर्थ्यानुसार दान देना मनुष्य का कर्तव्य माना गया है। भविष्य पुराण में कहा गया है “दानमेकम् कलौ युगे" अर्थात् कलि के युग में दान देना परमावश्यक है। रामचरितमानस में भी ऐसा कहा गया है-
प्रगट चारी पद धर्म के कलि महँ एक प्रधान।
येन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान।।
"धर्म के चार पाद हैं। कलियुग में इनमें से एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, वह है यथासंभव दान करना।" दान करने से कई प्रकार के लाभ होते हैं। दान देने से हमारा भौतिक वस्तुओं से मोह कम होता है। सेवाभाव में वृद्धि होती है। इससे हृदय विशाल होता है तथा अन्य लोगों के प्रति करुणा की भावना जागृत होती है। अतः अधिकांश धार्मिक सम्प्रदायें अपनी आय का 10वां भाग दान में हैं। स्कंदपुराण में उल्लेख किया गया है-
न्यायोपार्जितवित्तस्य दशमांशेन धीमतः।
कर्तव्यो विनियोगश्च ईश्वरप्रीत्यर्थमेव च।।
"उचित साधनों द्वारा और श्रेष्ठ बुद्धि बल द्वारा अर्जित की गई संपत्ति में से 10वां भाग अपना कर्त्तव्य मानकर दान में दे देना चाहिए। अपने दान को भगवान की प्रसन्नता के लिए अर्पित करो।" इस श्लोक में श्रीकृष्ण द्वारा वर्णित हेतुओं के अनुसार दान को उचित अथवा अनुचित, श्रेष्ठ अथवा निम्न श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है। जब उचित समय पर तथा उपयुक्त स्थान पर किसी सुपात्र को मुक्त हृदय से दान दिया जाता है, तब इसे सत्त्वगुणात्मक माना जाता है।